
सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस यशवंत वर्मा की याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा: CJI की सिफारिश और आंतरिक जांच पर उठे सवाल
जस्टिस यशवंत वर्मा की याचिका पर सुनवाई
उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा की रिट याचिका पर 30 जुलाई 2025 को फैसला सुरक्षित रख लिया। जस्टिस वर्मा ने आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट को चुनौती दी थी, जिसमें उन्हें कदाचार का दोषी ठहराया गया था। इसके साथ ही, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना द्वारा उनकी बर्खास्तगी की सिफारिश को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजे जाने को भी चुनौती दी गई थी। मामले की सुनवाई जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने की।
आंतरिक जांच और CJI की सिफारिश पर सवाल
जस्टिस वर्मा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने दलील दी कि न्यायाधीश (जांच) अधिनियम ही न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है, और आंतरिक जांच के आधार पर हटाने की सिफारिश अनुच्छेद 124 का उल्लंघन है। सिब्बल ने कहा कि CJI की सिफारिश संसद की प्रक्रिया को प्रभावित करती है, जो उनके अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप है। जस्टिस दत्ता ने जवाब में कहा कि CJI का कर्तव्य केवल डाकघर की तरह नहीं है; यदि कदाचार की सामग्री सामने आती है, तो उसे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजना उनका दायित्व है।
आंतरिक जांच की वैधता पर बहस
जस्टिस दत्ता ने बताया कि आंतरिक जांच की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णयों, जैसे ए. वीरास्वामी रविचंद्रन मामले, पर आधारित है। उन्होंने पूछा कि यदि जस्टिस वर्मा को प्रक्रिया असंवैधानिक लगी, तो उन्होंने शुरू में इसे क्यों नहीं चुनौती दी। पीठ ने यह भी कहा कि आंतरिक जांच केवल प्रारंभिक निष्कर्ष है, और CJI की सिफारिश बाध्यकारी नहीं है; अंतिम निर्णय संसद का है। सिब्बल ने मांग की कि CJI की सिफारिश को “अस्वीकार्य” घोषित किया जाए।
वीडियो लीक पर कोर्ट की सहमति
सिब्बल ने तर्क दिया कि जांच के दौरान नकदी जलाने का वीडियो लीक नहीं होना चाहिए था, जिसे सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किया गया, जिससे यह विश्वसनीय लगता है। जस्टिस दत्ता ने सहमति जताई कि वीडियो लीक नहीं होना चाहिए था, लेकिन पूछा कि क्या यह सांसदों जैसे उच्च क्षमता वाले लोगों को प्रभावित करेगा। सिब्बल ने कहा कि यह वीडियो जस्टिस वर्मा के खिलाफ जनमत को प्रभावित कर रहा है।
जांच का आधार: नकदी बरामदगी और कदाचार
मामला 14 मार्च को जस्टिस वर्मा के दिल्ली उच्च न्यायालय के आधिकारिक आवास के बाहर नोटों का ढेर जलने की घटना से शुरू हुआ। CJI संजीव खन्ना ने तीन न्यायाधीशों की समिति गठित की, जिसमें जस्टिस शील नागू, जस्टिस जी.एस. संधावालिया, और जस्टिस अनु शिवरामन शामिल थे। समिति ने 55 गवाहों और वीडियो साक्ष्यों की जांच के बाद निष्कर्ष निकाला कि नकदी जस्टिस वर्मा के परिसर में थी, और उनका स्पष्टीकरण असंतोषजनक था। समिति ने उनके खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की, जिसे CJI ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजा।
महाभियोग की प्रक्रिया और सांसदों की भूमिका
पिछले सप्ताह राज्यसभा और लोकसभा के सांसदों ने जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग नोटिस प्रसारित किया। पीठ ने स्पष्ट किया कि CJI की सिफारिश महाभियोग शुरू करने का आधार नहीं है, और संसद स्वतंत्र रूप से इस पर विचार कर सकती है। जस्टिस दत्ता ने कहा कि आंतरिक जांच अनुच्छेद 141 के तहत कानून है, और जस्टिस वर्मा का प्रक्रिया में भाग लेने के बाद उसे चुनौती देना विश्वास पैदा नहीं करता।
नेदुम्परा की याचिका पर सवाल
अधिवक्ता मैथ्यूज जे नेदुम्परा की याचिका, जिसमें जस्टिस वर्मा के खिलाफ प्राथमिकी की मांग की गई थी, पर भी सुनवाई हुई। पीठ ने नेदुम्परा से पूछा कि उन्हें गोपनीय रिपोर्ट कैसे मिली, और हलफनामा दाखिल करने को कहा। जस्टिस दत्ता ने सुझाव दिया कि वे पुलिस या मजिस्ट्रेट से संपर्क करें, क्योंकि उनकी याचिका उचित प्रक्रिया का पालन नहीं करती।
सुप्रीम कोर्ट ने दोनों याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रखा है। यह मामला न केवल जस्टिस वर्मा के भविष्य, बल्कि न्यायपालिका में आंतरिक जांच की प्रक्रिया और CJI की भूमिका पर भी गंभीर सवाल उठाता है। यह घटना न्यायिक पारदर्शिता और जवाबदेही के मुद्दों को रेखांकित करती है, जिसका प्रभाव संसद और जनता पर पड़ सकता है।
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